भारत देश करीब 32 लाख वर्ग किमी के क्षेत्रफल में फैला एक बहुत ही बड़ा देश है। इस देश को अलग-अलग कई राज्यों में विभाजित किया गया है। राज्यों के इस विभाजन के पीछे कई कारण महत्वपूर्ण हैं जैसे कि भाषा, क्षेत्रीय बनावट, रीति-रिवाज इत्यादि। भारत के सभी राज्यों के लोग किसी ना किसी प्रथा का अनुसरण वर्षों से करते हैं आ रहे हैं। यदि इन सभी प्रथाओं के बारे में विस्तृत अध्ययन किया जाए तो एक मोटी-सी किताब लिखी जा सकती है।
अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग प्रथाएं है जो उन्हें एक-दूसरे से अलग भी करती है। इन सभी प्रथाओं में कुछ ऐसी प्रथाएं हैं जिन्हे हर कोई अपनाना चाहेगा पर इसके विपरीत कुछ ऐसी प्रथाएं भी यहाँ विद्यमान हैं जिन्हे कोई भी अपनाना नही चाहेगा। बावजूद इसके जहाँ वे प्रथाएं प्रचलित हैं वहां लोग उसे खूब मनोभाव से वर्षों से मनाते आ रहे हैं। आइये आज बात करते हैं ऐसी ही एक प्रथा के बारे में जिसे आंध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में मनाया जाता है।
बानी प्रथा अथवा बानी उत्सव (Bani Festival):
इस प्रथा का आयोजन आंध्र प्रदेश राज्य के कुर्नूल जिले में किया जाता है। इस प्रथा को प्रति वर्ष दशहरा के अवसर पर मनाया जाता है। इस प्रथा को मुख्यतः कुर्नूल के ही देवरगट्टू मंदिर के पास आयोजित किया जाता है। इसका आयोजन दशहरा के मध्य रात्रि से प्रारम्भ होता है और अगले दिन सूर्योदय तक चलता है। प्रति वर्ष इस प्रथा के पूर्ण होने के उपरांत सैकड़ों घायल लोगों को अस्पतालों में भर्ती करवाना पड़ता है और कभी-कभी दुर्भाग्यवश कई लोगों की मृत्यु भी हो जाती है।
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क्या है यह प्रथा:
इस प्रथा में देवरगट्टू मंदिर के आस-पास के गांवों के लोग लाठियां लेकर इकठ्ठा होते हैं। उन लोगों का ऐसा मानना है कि इस दिन भगवान् शिव और माता पार्वती मलेश्वर और मलामा के रूप में प्रकट होते हैं। जिस प्रकार भगवान् शिव ने दैत्यों पर प्रहार कर इस जग का निर्माण किया था उसी प्रकार वहां के आम लोग भी अपनी-अपनी लाठियों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं। इस प्रथा में लोग इतनी इच्छाशक्ति के साथ लड़ते हैं कि चोट लगने पर भी उन्हें दर्द का अहसास नहीं रहता है। यदि किसी को चोट लग जाती है तो वह दवाई के बजाय हल्दी का लेप लगाकर वापस लड़ाई में लग जाता है।
इस प्रथा का इतिहास:
वहां के स्थानीय लोगों का मानना है कि यह कोई नई प्रथा नहीं है जिसे हम यूँ ही छोड़ देंगे। उनका मानना है कि इस प्रथा का सैकड़ों साल पुराना इतिहास रहा है। इस विचित्र लड़ाई के साथ-साथ इस दिन अनेक कार्यक्रमों का आयोजन भी यहाँ किया जाता है।
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प्रशासन का प्रयास:
प्रत्येक वर्ष इस प्रथा पर रोक लगाने के लिए प्रशासन द्वारा प्रयास किये जाते हैं परन्तु लोगों का इसके प्रति उत्साह इतना अधिक रहता है कि प्रशासन बेसहारा होकर एक मूक दर्शक बन कर रह जाता है। इस प्रथा में बहुत अधिक लोगों को नुकसान ना पहुंचे इसके बचाव के लिए सैकड़ों पुलिस बल वहां तैनात किये जाते हैं। मेडिकल और एम्बुलेंस की सुविधा मुस्तैद रहती है।
लोगों की राय:
इस प्रथा के आयोजन के पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ लोगों की अपनी-अपनी राय है। इस प्रथा के मनाने वाले लोगों को इस बात पर गर्व है कि वे इस प्रथा का हिस्सा बन पाते हैं वहीँ विपक्ष मत वाले लोगों का मानना है कि यह प्रथा एक हिंसक रूप में मनाई जाती है, जिसमे बहुत सारे लोग घायल होते हैं और कई लोग जीवन भर के लिए अपने किसी अंग को गँवा देते हैं कुछ लोगों की मृत्यु तक हो जाती है।
हालाँकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने विचारों पर अडिग हैं। यह प्रथा अभी भी चली आ रही है और शायद अभी वर्षों तक ऐसे ही चलती रहेगी।
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