हमे इस बात पर बड़ा गर्व महसूस होता है कि हम भारतवासी हैं, हमारा जन्म इस सरजमीं पर हुआ है और हममें से अधिकतर इसी सरजमीं की मिट्टी में मिल जाने की ख्वाहिश दिल में रखते भी हैं। लगभग सभी देशवासियों को इस बात पर अत्यंत फक्र महसूस होता है कि पूरी दुनिया में अपने देश का रुतबा प्रत्येक क्षेत्र में उच्च कोटि का है, देश निरंतर विकास पथ पर अग्रसर है जिसमे हर एक देशवासी का बराबर सहयोग है। लेकिन यदि हम अपने देश के इतिहास में झांके तो हमे पता चलता है कि जो स्थिति आज देश की है वैसी स्थिति पहले नही रही है।
आज हमारे लिए अपना जीवन यापन करना जितना आसान है उतना आसान पहले नही रहा है। भारत देश वर्षों तक गुलाम रहा है, पहले सल्तनत फिर मुग़ल और अंततः अंग्रेजों के हाथों. वर्षों से चली आ रही इसी गुलामी से देश को बाहर निकालने में देश के अनेक महान आत्माओं ने अपने जान तक की बाजी लगा दी तब कहीं हमे आजादी मिली. आज हम बात करने जा रहे हैं, ऐसे ही एक वीर देशवासी के बारे में जिसने ना केवल खून का बदला खून से लिया बल्कि दुश्मन के घर में घुस कर उसे उसकी औकात दिखाई. हम बात करने जा रहे है स्वतंत्रता सेनानी शहीद उधम सिंह जी के बारे में.
यह भी पढ़ें:
- एक ऐसी जनजाति जिनका जीवन गौमूत्र के बिना असंभव है।
- जाने क्यों इस रेस्टोरेंट में लोग टॉयलेट सीट पर खाने का लुत्फ़ उठाते हैं?
उधम सिंह का प्रारंभिक जीवन:
उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को तत्कालीन पंजाब राज्य के संगरूर जिले के सुनाम नामक स्थान पर हुआ था. जब वे बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया था. उनके पिता का नाम तेहल सिंह था जो कि एक किसान थे. माता-पिता के देहांत के उपरांत पंजाब के अमृतसर स्थित सेंट्रल खालसा अनाथालय द्वारा इन्हें और इनके भाई मुक्ता सिंह को गोद ले लिया गया. उधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था लेकिन अमृतसर में इनके बगावती प्रकृति के कारण ये उधम सिंह के नाम से मशहूर हो गये. वर्ष 1918 में इन्होने अपने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की. ये देश हित में भगत सिंह द्वारा किये जा रहे कार्यों से बहुत प्रभावित थे और धीरे-धीरे इसी क्षेत्र में रूचि लेने लगे थे.
जालियावाला बाग़ हत्याकांड:
चूंकि उधम सिंह की रुचि देश हित में किये जा रहे विरोध-प्रदर्शन में अत्यधिक बढ़ गई थी तो ये इन विरोध प्रदर्शनों में भी शामिल होने लगे थे. ये अक्सर जालियावाला बाग़ में होने वाले प्रदर्शनों में प्रदर्शनिकारियों को पानी पिलाने से लेकर विभिन्न तरीकों से उनका सहयोग करते रहते थे. इसी क्रम में 10 अप्रैल 1919 को सत्याग्रही सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू सहित कई क्रांतिकारियों को रोलेट एक्ट के तहत अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था. इसी के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को करीब 20 हजार से अधिक प्रदर्शनकारी जालियावाला बाग़ में इकठ्ठा हो गये. वे सभी शांतिपूर्ण तरीके से इस गिरफ्तारी के विरुद्ध अपना विरोध-प्रदर्शन जाहिर कर रहे थे लेकिन घमंडी ब्रिटिश अधिकारी कर्नल डायर ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया.
गोलीबारी शुरू होने के कारण वहां भगदड़ मच गई. कहा जाता है कि प्रदर्शनकारियों को किसी भी रास्ते से बाहर निकलने नही दिया गया. इस गोलीबारी में करीब 1000 से 1200 लोग शहीद हो गये थे. उधम सिंह इस घटना के साक्षी थे. यह घटना उनके दिलो-दिमाग पर इस कदर हावी हो गई कि उन्होंने उसी दिन कर्नल डायर से इस घटना का बदला लेने की ठान ली और उनके बदले की आग इतनी ज्वलनशील थी कि उन्होंने इसे 21 वर्षों तक पाले रखा और जैसे ही वर्ष 1940 में उन्हें मौका मिला उन्होंने कर्नल डायर से इसका हिसाब चुकता कर लिया.
यह भी पढ़ें:
- हिक्किम (Hikkim): दुनिया के सबसे ऊंचाई पर स्थित पोस्ट ऑफिस का गाँव।
- राम करेंसी: ऐसी मुद्रा जिस पर भगवान् की राम की तस्वीर छपती है।
जलियांवाला बाग का बदला:
जालियावाला बाग़ हत्याकांड के करीब 21 वर्ष बाद 13 मार्च 1940 को लन्दन के Caxton Hall में ईस्ट इंडिया कंपनी एसोसिएशन के द्वारा आयोजित एक मीटिंग में जलियावाला बाग़ हत्याकांड से संबंधित एक अधिकारी जिसका नाम Sir Michael O’Dawyer था को बतौर अतिथि आमंत्रित किया गया था। यह वह व्यक्ति था जो जलियांवाला बाग हत्याकांड के दौरान वर्ष 1913 से लेकर 1919 तक पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर रहा था। जलियांवाला बाग हत्याकांड के उपरांत इसने गोली चलाने का आदेश देने वाले Reginald Dawyer की खूब तारीफ की थी। ऐसा भी कहा गया कि गोली चलवाने के पीछे इसी की सबसे अहम भूमिका थी।
उस दिन जब डायर मंच पर भाषण देने के लिए पहुंचा तभी वहां पहले से मौजूद उधम से ने मौका देख उसे गोली मार दी। उधम सिंह द्वारा चलाई गई पहली ही गोली डायर के सीने को छलनी करते हुए बाहर निकल गई। उस समय Michael O’Dawyer को मौत की नींद सुलाने वाले उधम सिंह को अपने मौत का कोई खौफ नहीं था बल्कि वे अत्यंत खुश थे कि वर्षो बाद वे अपने देश का बदला लेने में कामयाब हो गए।
उधम सिंह को फांसी की सजा:
डायर की हत्या के बाद उधम सिंह को वहां से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें जब कोर्ट में पेश किया गया और उनसे उनके द्वारा किये गए गुनाह के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा “मुझे इस बात का बिलकुल भी गम नहीं है कि मैं मरने जा रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि मैं आज मरुँ या वृद्ध अवस्था में मरुँ, एक ना एक दिन मरूंगा ही और जब मरना ही है तो वृद्ध होने का इंतजार क्या करना” उन्होंने लंदन के उस कोर्ट में खुद का नाम लेकर चिल्लाते हुए कहा कि मेरा नाम ‘राम मुहम्मद सिंह आजाद’ है। अर्थात वे उस समय देश के तीनों प्रमुख धर्मों को अपने नाम में समाहित कर यह साबित करना चाहते थे कि मैं अकेला नहीं हूँ बल्कि मेरे साथ मेरा पूरा देश है और यह बदला केवल मैंने नहीं बल्कि मेरे पुरे देश नहीं लिया है।
यह भी पढ़ें:
- क्यों यह व्यक्ति दिन भर पुरे शहर के सड़कों के गड्ढे भरता रहता है?
- सांभर झील: जहाँ से राजस्थान सहित देश को मिलता है शुद्ध नमक।
पूरी दुनिया का सहयोग:
उधम सिंह द्वारा किये गए इस पराक्रम को पूरी दुनिया ने सराहा। सभी आजाद देशों की प्रिंट मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से छापा। भारत में यह खबर मिलने के बाद लोगों में उत्साह की भावना धधक उठी। लोगों ने उधम सिंह के समर्थन में सड़कों का रुख किया और अंग्रेज सरकार से उनकी रिहाई की मांग भी की। लेकिन इसके विपरीत कुछ भारतीय नेताओं ने इसे मूर्खतापूर्ण करार दिया। खुद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस घटना की आलोचना की थी और देश आजाद होने के उपरांत वर्ष 1962 में अपने पिछले बयान के उलट उनकी तारीफ भी की थी।
उधम सिंह के प्रति सम्मान:
उधम सिंह के बलिदान को को यह देश हमेशा याद रखेगा। उधम सिंह के बलिदान के सम्मान में उनके गृह क्षेत्र का नाम बदलकर उनके नाम पर रख दिया गया। वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने उधम सिंह नगर नाम से एक नए जिले का निर्माण किया जो अब उत्तराखंड राज्य में स्थित है।
उधम सिंह जी ने अपने वीरता और साहसिक कर्त्तव्य पालन से हमे यह सीखा दिया कि यदि हमारे अंदर अपने देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो हम लाख विपरीत परिस्थितयों के बावजूद भी उसे पूरा कर सकते हैं। यह सीख देश के साथ-साथ हमारे व्यक्तिगत जीवन में भी कारगर सिद्ध हो सकती है।
यह भी पढ़ें: