“हाथ के लकीरों से जिंदगी नहीं बनती, अजम हमारा भी कुछ हिस्सा है जिंदगी बनाने में” वैसे तो यह कथन भारतीय तेज धावक और ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह के हैं परन्तु यह मात्र उनके लिए एक कथन नहीं है बल्कि उन्होंने इसे साबित करके दिखाया भी है जिस कारण से वे हम सभी के लिए एक महान प्रेरणास्रोत हैं।
मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर 1929 को वर्तमान पाकिस्तान के गोविंदपुरा में हुआ था लेकिन वर्ष 1947 में भारत को मिली आजादी और विभाजन के बाद उन्हें गोविंदपुरा छोड़कर भारत आना पड़ा था। विभाजन में उनके माँ-बाप के साथ-साथ उनके कई अपनों की जाने कट्टरपंथियों के द्वारा ले ली गईं थीं। विभाजन के बाद जब मिल्खा सिंह अपनी बड़ी बहन और उनके परिवार के साथ ट्रेन से दिल्ली पहुंचे तो उन लोगों को बिना टिकट यात्रा करने के कारण जेल में डाल दिया गया था। जेल से छूटने के बाद वे दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में एक शरणार्थी के रूप में अपने जीवन के कई वर्ष बिताए।
अपनी माली हालत के कारण कई बार उन्होंने डकैत बन जाने के बारे में सोचा लेकिन फिर अपने भाई मलखान से प्रेरित होकर उन्होंने भारतीय सेना में भर्ती होने का निश्चय किया। उन्होंने सेना में भर्ती होने के लिए कई बार प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिल पा रही थी। अंततः अपनी चौथी सफलता में वे वर्ष 1951 में भारतीय सेना में भर्ती हो गए हालाँकि उनके भाई मलखान सेना में भर्ती होने से वंचित रह गए थे।
जब मिल्खा सिंह सेना के एक यूनिट में सिकंदराबाद में तैनात थे तभी उन्हें एथेलिटिक्स के बारे में पता चला। इसके पहले उन्हें रेसिंग और ओलिंपिक क्या होते हैं के बारे में कुछ नहीं पता था। उसके उपरांत धीरे-धीरे मिल्खा सिंह एथेलिटिक्स में आगे बढ़ते गए। वर्ष 1956 के मेलबोर्न ओलंपिक्स में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर के स्पर्धा में भाग लिया लेकिन उन्हें बहुत ख़ास सफलता नहीं मिली परन्तु वहां पर वे अमेरिकी एथेलिटिक्स चैंपियन चार्ल्स जेंकिन्स से बहुत प्रभावित हुए और उनसे उन्होंने ट्रेनिंग के गुर सीखें।
वर्ष 1958 में ओडिशा में आयोजित ‘नेशनल गेम्स ऑफ़ इंडिया’ में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर की स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीता। इसके अलावा ‘एशियन गेम्स’ में भी उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर की स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीता। वर्ष 1958 के ‘ब्रिटिश एम्पायर गेम्स’ जिसे अब ‘कामनवेल्थ गेम्स’ के नाम से जाना जाता है में भी उन्होंने 400 मीटर की स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीता और इसके साथ ही वे कामनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाड़ी बन गए। इन सभी खेलों में गोल्ड मेडल जीतने वाले वे एकलौते भारतीय पुरुष खिलाड़ी हैं।
वर्ष 1960 में पाकिस्तान में एक स्पर्धा का आयोजन किया गया था जिसमे मिल्खा सिंह को प्रसिद्ध पाकिस्तानी एथेलिटिक्स चैंपियन ‘अब्दुल ख़ालिक़’ के खिलाफ दौड़ना था लेकिन मिल्खा सिंह पाकिस्तान वापस जाना नहीं चाहते थे। जब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे इस स्पर्धा में भाग लेने के लिए आग्रह किया तो वे मना नहीं कर सके। उन्होंने इस स्पर्धा में भाग लिया और अब्दुल ख़ालिक़ पर ऐतिहासिक जीत हासिल की। उनके जीत से खुश होकर तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति ‘अयूब खान’ ने उन्हें ‘द फ्लाइंग सिंह’ नाम दिया।
मिल्खा सिंह के अनुसार उन्होंने अपने जीवन के कुल 80 स्पर्धाओं में से 77 में जीत दर्ज किया है। हालाँकि कुछ लोग इस पर ऊँगली भी उठाते हैं। वर्ष 1959 में मिल्खा सिंह को ‘पदम् श्री’ से सम्मानित किया गया था। वर्ष 2001 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किये जाने का प्रस्ताव सरकार द्वारा दिया गया था लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया था। मिल्खा सिंह के द्वारा जीते गए सभी मेडल्स को पटियाला स्थित म्यूजियम में रखा गया है क्यूंकि उन्होंने अपने सभी मेडल को देश के नाम समर्पित कर दिया था।
मिल्खा सिंह की पत्नी का नाम निर्मल कौर सैनी है जो कि पूर्व भारतीय वॉलीबाल कप्तान रह चुकीं हैं। मिल्खा सिंह के एक बेटे और तीन बेटियां हैं। इनके बेटे ‘जीव मिल्खा सिंह’ प्रसिद्ध भारतीय गोल्फर हैं।
वर्ष 2013 में मिल्खा सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ को रिलीज़ किया गया था। इस फिल्म में फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह का किरदार निभाया था। यह एक बहुत ही सफल फिल्म थी जो बहुत ही बखूबी से मिल्खा सिंह के जीवन को लोगों के सामने रखती है।
18 जून 2021 को कोविड-19 नामक बीमारी से संक्रमित होने के कारण उनका देहांत हो गया। उनके देहांत के महज 5 दिन पहले ही उनकी पत्नी निर्मल कौर का भी निधन हो गया था। भले ही उनकी महान आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई हो लेकिन हम उनसे प्रतिक्षण प्रेरित होते रहेंगे।