Home अपना देश उत्सव क्या है कर्नाटक का माडे-माडे स्नाना (Made Made Snana) उत्सव?

क्या है कर्नाटक का माडे-माडे स्नाना (Made Made Snana) उत्सव?

भारत देश अनेक सामाजिक वर्गों में बंटा है। यहाँ अनेक धर्मों के साथ-साथ अनेक जाति, जनजाति, समुदाय, मत, मान्यताओं के लोग निवास करते हैं। यहाँ अनेक प्रकार के रीति-रिवाज वर्षों से मनाये जा रहे हैं जो शायद एक समुदाय के लिए अत्यंत वंदनीय होते हैं वहीँ दूसरे समुदाय के लिए थोड़े अजीब भी हो सकते हैं। परन्तु हमारे देश में सभी लोग अपने रीति-रिवाजों को अत्यंत शालीनता के साथ मनाते रहते हैं। आज हम ऐसे ही एक रीति (प्रथा) के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसका सम्बन्ध दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक से है।

माडे-माडे स्नाना (Made Made Snana):

माडे-माडे स्नाना उत्सव एक क्षेत्रीय उत्सव है। कुछ लोग इसे प्रथा भी कहते हैं क्यूंकि इस उत्सव को जिस प्रकार मनाया जाता है यह बहुत हद तक एक प्रथा की रूप लगता है। वैसे तो इस उत्सव का सम्बन्ध कर्नाटक राज्य से है परन्तु यह पुरे राज्य में ना मनाकर राज्य के कुछ जिलों तक ही सीमित है।

देश-दुनिया के लोगों के लिए यह प्रथा पहली नजर में अत्यंत निंदनीय और अजीब हो सकता है लेकिन वहां के निवासियों के लिए यह अत्यंत पूजनीय और श्रद्धा भाव से जुड़ा है। यहाँ तक कि इस उत्सव के बारे में भारत के ही 95% से अधिक लोगों को बिलकुल भी ज्ञान नही होगा। इस उत्सव को मुख्य रूप से कर्नाटक राज्य के दक्षिण कन्नड़ और उडुपी जिले के कुछ मंदिरों में ही जोर-शोर से मनाया जाता है।

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इस उत्सव को मनाने के लिए कर्नाटक राज्य के दक्षिण कन्नड़ जिले के सुप्रसिद्ध कुक्के सुब्रमण्या मंदिर (Kukke Subramanya Temple) में भारी संख्या में लोग इकठ्ठा होते हैं। इस उत्सव में शामिल होकर श्रद्धालु स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। माडे-माडे स्नाना उत्सव के दिन मंदिर प्रांगण को खूब सजाया-संवारा जाता है।

मंदिर में विविध प्रकार के क्षेत्रीय पकवानों को तैयार किया जाता है। श्रद्धालु सुबह से ही मंदिर प्रांगण में जमे रहते हैं और पुरे उत्सव का आनंद उठाते हैं। सभी श्रद्धालु पकवान तैयार होने का इंतजार करते हैं। पकवान तैयार होने के उपरांत सबसे पहले मंदिर प्रांगण में पहुंचे ब्राह्मणों को केले के पत्ते पर भोजन करवाया जाता है।

इस उत्सव का सबसे रोचक समय ब्राह्मणों के भोजन करने के उपरांत शुरू होता जो कि कुछ लोगों के लिए अत्यंत विस्मयकारी है तो कुछ लोगों के लिए श्रद्धा का क्षण। वर्षों से चली आ रही रीति के अनुसार ब्राह्मण-गण भोजन ग्रहण करने के उपरांत कुछ जूठा भोजन उसी केले के पत्तल में छोड़ देते हैं जिसके उपरांत इस उत्सव का सबसे मुख्य क्रिया-कलाप शुरू होता है।

जूठे भोजन पर लोटने की प्रथा:

ब्राह्मणों के भोजन करके अपने जगह से उठने के उपरांत वहां सैकड़ों की संख्या में पहले से मौजूद अन्य वर्णों और जातियों के लोग अपने अर्धनग्न शरीर के साथ उस छूटे हुए जूठे भोजन पर लेटकर एक जगह से दूसरी जगह तक करवट बदलते-बदलते चले जाते हैं। इस भीड़ में महिला और पुरुष सामान रूप से शामिल होते हैं। सैकड़ों लोग एक साथ जूठे भोजन पर लोटते है तो वहीं सैकड़ों लोग किनारे पर खड़े होकर इस क्रिया-कलाप का आनंद उठाते हैं।

इस उत्सव का अगला चरण होता है शरीर पर लगे जूठे भोजन को साफ़ करने का। अतः लोग मंदिर से निकल कर वहीँ पास में ही स्थित कुमारधारा नदी में स्नान करते हैं। इस प्रकार यह उत्सव संपन्न होता है।

रोग मुक्ति की आशा:

इस उत्सव में श्रद्धा विश्वास रखने वाले लोगों का मत है कि इस प्रकार ब्राह्मणों द्वारा छोड़े गये जूठे भोजन पर लोटने से अनेक प्रकार की मनोकामनाएं पूरी हो जाती है तथा शरीर में व्याप्त अनेक रोगों से भी मुक्ति मिल जाती है जैसे चर्म रोग इत्यादि। इतना ही नहीं इस जूठे भोजन पर लोटने वाले लोगों का यह भी मानना है कि उत्सव में शामिल होकर इस प्रकार जूठे भोजन पर लोटने से उनके इस जन्म और पिछले जन्म के बुरे कर्मों से उन्हें मुक्ति मिल जाती है।

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इस प्रथा का विरोध:

यह उत्सव अपने-आप में एक अत्यंत ही अनोखा उत्सव है। इस उत्सव के विरुद्ध कुछ आधुनिक विचारों को प्राथमिकता देने वाले संगठनों द्वारा विरोध भी दर्ज कराया गया तथा धरना-प्रदर्शन भी किया गया। इन संगठनों ने यह दलील दी कि इस उत्सव में उच्च वर्ग के लोगों द्वारा निम्न वर्गीय लोगों के साथ वर्षों से किये जा रहे भेदभाव को अभी भी निभाया जा रहा है जो कि अस्वीकार्य है, इसलिए इस प्रथा को बंद कर देना चाहिए।

लेकिन आपको जानकार अत्यंत हैरानी होगी कि जहाँ कर्नाटक राज्य के कुछ वर्गों द्वारा इसका घोर विरोध किया जा रहा हैं वहीं कर्नाटक राज्य के ही आदिवासी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए बने एक संगठन ‘राज्य आदिवासी बुदाकट्टू हितरक्षणा वेदिके’ के अध्यक्ष ने इसका भरपूर समर्थन किया और कोर्ट में इस पर बैन लगाने के लिए डाली गई याचिका के खिलाफ आवेदन किया है।

उनका मत है कि यह प्रथा बिलकुल भी बंद नहीं होनी चाहिए क्यूंकि यह प्रथा करीब 500 वर्षों से चली आ रही है और इसमें शामिल होने वाले लोग चाहें वे ब्राह्मण वर्ग के हों या अन्य वर्ग के सभी के सभी स्वेच्छा पूर्वक इस उत्सव में शामिल होते हैं। ब्राह्मण वर्ग के लोग भोजन ग्रहण करते हैं और अन्य वर्ग के लोग अपनी इच्छा से जूठे पत्तलों पर लोटते हैं ना कि किसी के दबाब में।

चूंकि यह अत्यंत ही विवादित मुद्दा रहा है इसलिए कोर्ट ने इस पर अभी तक कोई सटीक निर्णय नही दिया है बल्कि यह यह मुद्दा अभी भी कर्नाटक हाई कोर्ट के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट में भी पेंडिंग हैं।

अब धीरे-धीरे इस प्रथा का स्वरुप बदल गया है। पहले इस उत्सव में लोग ब्राह्मणों द्वारा किये गये भोजन के उपरांत बचे हुए जूठे पत्तलों पर लोटते थे परन्तु अब मंदिर में भगवान् को पहले भोग लगाया जाता है और उसके उपरांत भोग लगाए गए प्रसाद अथवा गायों द्वारा खाए गए प्रसाद पर लोटकर लोग इस उत्सव को पूरा कर रहे हैं। 

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