भारत अनेक विविधताओं से भरा हुआ देश है। लाखों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस देश के अलग-अलग भागों में अलग-अलग प्रकार की संस्कृतियों का पालन करने वाले लोग निवास करते है। सभी के अपने अलग-अलग रहन-सहन, खान-पान और बोल-चाल के तौर-तरीके हैं। कुछ समुदाय अथवा जनजाति के लोग जिन तीज-त्योहारों को हर्षो उल्लास के साथ मनाते हैं वहीं कुछ जनजाति के लोग उन त्योहारों के बारे से बिलकुल ही अनजान रहते हैं।
कुछ ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जहाँ एक क्षेत्र में किसी तीज-त्योहार को लोग हर्षो-उल्लास के साथ मना रहे हैं तो वहीं इसी देश के किसी दुसरे भाग में उसी तीज-त्योहार के दिन लोग शोक मना रहे हैं। आइये इसी उदाहरण को चरितार्थ करने वाली देश की एक जनजाति के बारे में विस्तृत चर्चा करते हैं जो दीपावली के दिन अपने पूर्वजों को याद करते हैं और दीपावली के दिन को शोक के रूप में मनाते हैं।
थारू जनजाति (Tharu Tribes):
थारू जनजाति भारत की एक प्रमुख जनजाति समूह है। इस जनजाति के लोग भारत सहित नेपाल में मुख्यतः निवास करते हैं तो आइये इस जनजाति से जुड़े कुछ अतिमहत्वपूर्ण बिंदु निम्न हैं:
थारू जनजाति का निवास स्थान:
थारू जनजाति के लोगों का सम्बन्ध मुख्यतः भारत और नेपाल देश से है। इस जनजाति के लोग सामान्यतः भारत और नेपाल के तराई भागों में निवास करते हैं। पश्चिम में भारत और नेपाल सीमा से लगे उत्तराखंड से लेकर पूर्व में बिहार तक के तराई भागों में थारू जनजाति मिल जाते हैं।
थारू नाम कैसे पड़ा:
थारू जनजाति को यह नाम कैसे मिला यह भी चर्चा का विषय है। इस परिप्रेक्ष्य में कई मत विद्यमान हैं। एक मत के अनुसार यह नाम स्थाविर शब्द से उत्पन्न हुआ। स्थाविर भगवान् बुद्ध के उपासक थे जो थेरावाडा बौद्ध धर्म का अनुपालन करते थे। एक दुसरे मत के अनुसार थारू जनजाति का नाम राजस्थान के थार रेगिस्तान पर पड़ा था क्यूंकि थारू जनजाति के लोग राजस्थान के राजपूतों के वंशज हैं। पश्चिमी तराई भाग के थारू जनजाति के लोग स्वयं को राजपूतों के वंशज मानते हैं।
थारू जनजाति की धार्मिक आस्था:
मुख्यतः ये हिन्दू (सनातन) धर्म में ही विश्वास रखते थे लेकिन बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार बढ़ने से भारी संख्या में थारू जनजाति के लोगों ने बौद्ध धर्म को भी स्वीकार कर लिया था। हालाँकि अभी भी थारू जनजाति के लोग हिन्दू धर्म में विश्वास रखते हैं और इसके नीति-नियमों का पालन करते हैं।
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दिवाली के दिन क्यूँ मनाते हैं शोक:
हिन्दू कैलेंडर के अनुसार कार्तिक महीने के 15वें दिन अर्थात अमावस्या के दिन हिन्दुओं द्वारा दिवाली मनाई जाती है परन्तु थारू जनजाति के लोग इस दिन दिवाली ना मनाकर इस दिन को शोक के रूप में मनाते हैं जबकि वे भी हिन्दू धर्म का ही अनुपालन करते हैं।
दरअसल अपने परंपरा के अनुसार इस दिन वे अपने पूर्वजों को याद करते हैं और उनकी याद में इस दिन शोक मनाते हैं तथा इसे वे दिवारी के नाम से भी पुकारते हैं। इस दिन वे अपने वैसे पूर्वजों को याद करते हैं जिनकी दिवारी के कुछ दिनों या कुछ महीनों पहले ही मृत्यु हुई होती है।
इस जनजाति के लोग अपने स्वर्गवासी परिवार के सदस्य की याद में एक पुतला तैयार करते हैं और दिवारी के दिन उसे जलाते हैं। पुतला जलाने के बाद अपने सभी रिश्तेदारों को अपने घर बुलाकर उन्हें भोज कराते हैं जिसे कि ‘बड़ी रोटी’ खिलाना कहा जाता है।
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सोहराई (Sohrai):
दीवारी के अगले दिन थारू जनजाति के द्वारा सोहराई मनाया जाता है। इस दिन इस समुदाय के हर घर में मांसाहारी भोजन बनाया जाता है। मांसाहारी भोजन के अलावा और भी अन्य तरह के जनजातीय पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन ये लोग गायों को भी प्रसाद खिलाते हैं।
थारू जनजाति का दीवाली के प्रति आकर्षण:
वैसे तो परम्परागत रूप से थारू जनजाति के लोग दीवाली नहीं मनाते हैं परन्तु थारू जनजाति की युवा पीढ़ी धीरे-धीरे सामाजिक मेल-जोल के कारण दीवाली त्योहार के प्रति आकर्षित हो रही है। धीरे-धीरे अब इस जनजाति के लोग भी दीवाली मनाना शुरू कर रहे हैं लेकिन वे अभी भी अपने पुरातन रीति-रिवाज का पालन करना नहीं त्यागे हैं।
मलेरिया बीमारी के प्रति मजबूत प्रतिरक्षा क्षमता:
थारू जनजाति के लोगों की मलेरिया बीमारी के प्रति प्रतिरक्षा क्षमता अत्यंत मजबूत है। अनेक अध्ययनों से यह निष्कर्ष सामने आया है कि थारू जनजाति के लोग आम दुसरे समुदायों के लोगों की अपेक्षा मलेरिया बीमारी से अधिक सुरक्षित हैं। एक अध्ययन के अनुसार थारू जनजाति के लोगों अन्य लोगों के अपेक्षा 7 गुना अधिक मलेरिया बीमारी से सुरक्षित रहते हैं जबकि उनका मुख्य निवास स्थान जंगलो से भरा पड़ा रहता है।
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